"हंसाः इव श्रेणिशो यतन्ते"
हंसों के समान क्रम में स्वतंत्र आकाश में अनुशासित होकर विचरण करना। हंसों के समान विवेकशील होना। अर्थात जिस प्रकार हंस, दूध और पानी को अलग-अलग करने में सक्षम है, उसी प्रकार मनुष्य को भी सत्य एवं मिथ्या तथा सही कर्म और गलत कर्म के भेद का ज्ञान होना चाहिए। इसी तर्क पर अपने जीवन में सत्यता एवं श्रेष्ठता के पथ पर अग्रसर होना चाहिए।