SWAMI HARIHARANAND PUBLIC SCHOOL

Founder’s Message

About Us Founder’s Message

Blessings from the founder

Mahamandaleshwar Shri 1008 Maa Santosh Puri Geeta Bharti Ji

ईश्वर की सृष्टि में तृण से लेकर ब्रह्म तक जीवन सृष्टि का वर्णन है। जिसमें सबसे पहला जीव तृणादि वृक्ष है। दूसरे कीट पतंग हैं। तीसरे पक्षी हैं। चौथे पशु हैं। पांचवा स्थान मनुष्य का है। यह पांचों जीवों में एकमात्र मनुष्य ही कर्मयोगी व ज्ञान प्रधान जीव है। जितने भी नियम व शास्त्र विधान हैं वह एकमात्र मनुष्य पर ही लागू होते हैं। कर्म करना तथा कर्म का फल प्राप्त करना यह मनुष्य पर ही निर्भर करता है। इसलिये समस्त योनियों में मनुष्य योनि सर्वोपरि मानी गयी है। मनुष्य के लिये ही ज्ञान की महत्ता है। मनुष्य को ही कर्म ज्ञान, फल का ज्ञान, शरीर का ज्ञान, परिवार का ज्ञान, व्यवहार का ज्ञान, पूरे संसार का ज्ञान, नाना प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान, नाना प्रकार की विद्याओं का ज्ञान जितनी भी सीखने और समझाने के विषय है। वह सब एकमात्र मनुष्य के ही लिये है।

इसलिये मनुष्य विद्याओं को सीखने के लिये जब आगे बढ़ता है तो इसका नाम विद्यार्थी पड़ जाता है। जो मनुष्य शिक्षा देते हैं ज्ञान देते हैं - ज्ञान दाता ही गुरू एवं शिक्षक के रूप में देखे जाते हैं। इस प्रकार से शिक्षा लेने व देने दोनों में मानव की ही प्रधानता है।

सीखने वाला विद्यार्थी जितना विनयशील एकाग्रता धारण करने वाला मेधावान होगा उतनी ही स्मरण करने की ताकत तीक्ष्ण होगी। ठीक इसी प्रकार सिखाने वाला जितना प्रवीण तीक्ष्णता व कुशलता पूर्वक सिखाने की क्षमता रखता है। उतना ही उसका शिष्य सीख जाता है। ज्ञान देने वाला तथा ज्ञान लेने वाला दोनों ही प्रवीण होने चाहिये। अब इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि ज्ञान व अभिमान यह दो विरोधी तत्व

परस्पर एक दूसरे से बहुत दूर रहते हैं। ज्ञान में अहं नहीं अभिमान नहीं अहंकार नहीं तथा जहां अहंकार है वहां से ज्ञान कोसो दूर चला जाता है। इसलिये सबसे पहले ज्ञान को पाना है तो अपने अहंकार को नष्ट करना होगा तथा ज्ञान के लिये अपने को तैयार करना होगा। ज्ञान प्राप्ति के लिये जागृत होना तथा सचेत रहना भी परम आवश्यकता है।

ज्ञान की प्राप्ति के साधन अनेक प्रकार के हैं जिन्हें वेद में वर्णित किया गया है।

"द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ।
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।"

अर्थात दो प्रकार की विद्या हैं एक परा और अपरा। एक भौतिक एक आध्यात्मिक । अपरा द्वारा भौतिक जीवन में आने वाले प्रत्येक विषय का ज्ञान मिलता है और परा द्वारा अपने आत्मा को जाना जाता है। अपरा विद्या मनुष्य को संसार में, व्यवहार में व्यापार में और परिवार में प्रवीण बनाती है। लौकिकता की चरम सीमा पर मनुष्य अपरा विद्या द्वारा ही पहुंचता है। यह अपरा विद्या ही है जो प्रत्येक विद्यार्थी को संसार का संपूर्ण ज्ञान प्रदान करती है।

इस संसार में बिना बोध के जीवन निरर्थक माना जाता है। इसलिए प्रत्येक विद्यार्थी को विद्यावान होकर अपना जीवन संवारना चाहिए। विद्या प्राप्ति की कोई सीमा नहीं है। मनुष्य मृत्युपर्यन्त सीखता ही रहता है फिर भी ज्ञान की समाप्ति नहीं होती कारण की एक दो नहीं अपितु सहस्त्रों विषय हैं जिनकी गिनती नहीं है। अतः पहले हमें अक्षर ज्ञान से लेकर गणित आदि का ज्ञान लेकर भाषा आदि का ज्ञान लेकर फिर विषय का चाहिए कि हमें किस विषय में प्रवीणता लेनी है। इन सबका माध्यम एक मात्र शिक्षा ज्ञान ही है। जो जिस विषय में जितनी तीक्ष्णता से सिद्धहस्त हो जाता है तथा उस विषय द्वारा उतना ही श्रेष्ठ व सम्मानित होता है। संसार में अपने व उस विषय को लेकर वह उतना ही आगे निकल जाता है। परन्तु ज्ञान को पाने का एक मात्र मानव को ही अधिकार दिया गया है। जितनी शक्ति लगाकर सीखना चाहे उतना सीख सकते हैं। विद्या प्राप्ति में न तो आयु का प्रतिबंध है न इसमें समय की मर्यादा है। ज्ञान सिखने के लिये जब जहां और जैसे समय मिले उसे पा लेना चाहिए। यह सब अपरा विद्या के विषय का वर्णन है।

दूसरी है परा विद्या- परा विद्या के विषय में बताया गया है कि "अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ।"

उस अक्षर वृक्ष के बोध को ही परा विद्या कहा जाता है। जिसे आत्म ज्ञान ब्रहमज्ञान परमात्मा ज्ञान तत्व ज्ञान आदि नामों से जाना जाता है। जिसे सामान्य शब्दों में अपने आपको जानना, पहचानना और समझना कहते हैं। आत्मा ही परमात्मा है। परमात्मा का अर्थ उसके शाश्वत चेतना से है। जिससे इस समस्त सृष्टी का संचालन हो रहा है। जब मनुष्य उस परम पुरूष परमात्मा का ध्यान करता है। वेदादी आर्ष ग्रंथों का स्वाध्याय द्वारा श्रवण मनन चिन्तन करके उनको प्रयोगात्मक रूप देने के लिये तत्पर होता है तभी उसके अंतर में आत्मभास T के रूप में साक्षी वृत्ति की एकाग्रता तथा शान्त्यता का संस्कार प्रकाशित होने लगता है। और वह धीरे से उस ओर अग्रसर होता है जो to ब्रह्मरंध में प्रवेशित कराता है।

ब्रह्म वह स्थान है जहां से उर्ध्वाभिमुख वृत्ति उठकर आत्मा की ओर उन्मुख होती है। तथा उस परम पुरूष परमात्मा का ध्यान करता है। तब उस ध्यान द्वारा समुत्पन्न अमृतत्व वायु वेग से सहस्र कर्णिका में प्रविष्ट हो जाता है। और मनुष्य को दोनों प्रकार की विद्या में निपुण बनाकर उसे जीवन में कृत कृत्य व धन्य कर देता है। इस प्रकार मानव जीवन में दोनों प्रकार की विद्याओं की आवश्यकता होती है एक भोतिक जीवन के लिये और दूसरी अपने आत्मा की शांति के लिये दोनों के लिये प्रयत्नशील ही रहना चाहिए।

( इति शुभम् )

know More About
Swami Hariharanand Public School ?